शराब, हम और आप

शराब से कल फिर तमाम मौतें हो गई। तमाम लोगों के घरों में उनके परिजन बिलखते रहे, रोते रहे और शराब को कोसते रहे। व्यवस्था पर दोष ढूंढते रहे। आखिर कब तक हम इस शराब के जरिए लोगों के जीवन को खत्म होने देंगे। यहां लोग मर जाते हैं और फिर जांच के नाम पर, आयोग, कमेटी और मजिस्ट्रेट जांच लागू की जाती है। इन जांचों से आज तक क्या हाल निकला है। यदि आप सभी जांचों का अध्ययन कर लेंगे तो समझ जाएंगे कि वाकई यह जांचें क्या होती हैं ? यह जांचे क्यों लागू की जाती हैं और इन से क्या निष्कर्ष निकलता है ?

 अभी कुछ माह पूर्व कानपुर जनपद के आसपास शराब ने अपना तांडव किया था और काफ़ी मौतें सामने आई थी। तमाम बहस, तमाम तरीके की जांचें और तमाम लोगों को गिरफ्तार किया गया था। लेकिन फर्क क्या पढ़ा था ? कुछ लोग जेल गए थे, कुछ लोग छूट गए थे, कुछ लोग अभी छुटने हैं। जो छूट गए हैं, हो सकता है फिर शराब से खेलने लगे हो और लोगों को शराब पिला रहे हो और जो अभी जेल में रह गए, जब छूटेंगे तो हो सकता है फिर से यही शराबबाजी शुरू कर दें। हर वर्ष कहीं न कहीं शराब से सौ 50 लोग मर जाते हैं। कभी-कभी जब एक आद मरते हैं तो शासन तक तो उसका संज्ञान नहीं ले पाता है। और कोई समझ भी नहीं पाता है कि मृतक शराब से मरा है, या अपनी मौत मरा है। जनता भी एक-दो दिन याद रखती है फिर भूल जाती है। तभी तो बेचारी जनता ही मारी जाती है, हम खुद हैं। अपनी जान के लिए चिंतित क्यों नहीं हैं, हम ऐसा क्यों करते हैं कि अपनी जान, अपने ही द्वारा ले लेते हैं।

ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बन पा रही है कि सरकार शराब को रोक दें। शराब को बंद करने में आखिर कितना बड़ा आर्थिक नुकसान होगा ? यदि आर्थिक नुकसान होता भी है तो क्या शराब पिलाकर व इंसानों को खत्म कर सरकार चलाना जरूरी है। लेकिन यहां सत्ता भी जानती है कि गरीब गुरबा लोग थोड़े दिन ही सब कुछ याद रखते हैं और फिर भूल जाते हैं। यह लोग शराब से ही वोट भी दे देते हैं। सरकारों को वोट का भी बहुत बड़ा लालच होता है। तो जब शराब पी-पी कर के वोट देने वाला इंसान ही खत्म हो जाएगा तो फिर सरकार क्या कर लेगी। सोचने की बात तो यह है कि आखिर ऐसी कौन सी बात है कि सरकारें शराब से होने वाली मौतों को भी बड़े आसानी से पचा जाती हैं।

तमाम लोग शराब के पक्ष में आपको और हमको बहस करते मिल जाएंगे और पीनेवाले भी पीनेवालों को ही दोषी ठहराने लगेंगे। देश की सरकार को बनाने में गरीब गुरबा से ऊपर वाले लोगों का हाथ होता है। इन्हीं लोगो को तो सरकार देखती है। लेकिन इनसे नीचे वाले इंसानों को कैसे जी रहे हैं, उससे मतलब गलत नहीं रह जाता है। इन गरीब गुरबा लोगों का कोई मीडिया नहीं होता है। एक आध क्षेत्रीय पार्टियां होती हैं तो वह भी एक सीमा तक आवाज उठा करके शांत हो जाते हैं। इन क्षेत्रीय पार्टियों के कार्यकर्ताओं को भी सरकार से आर्थिक और शारीरिक नुकसान होने के साथ-साथ मुकदमों का भी भय बना रहता है। तो छोटे कार्यकर्ता तमाम हुल्ला न करके, धीरे वाले अपनी बात मिटा देते हैं।

अब तो प्रदेश सरकारों की कार्यप्रणाली भी केवल खानापूर्ति तक सीमित रह गई है। तमाम कोशिशों के बाद भी सरकार शराब बंद करने की तरफ तो देख भी नहीं रही है। शराब, सरकार और आर्थिक लाभ यह तीन बिंदु है जो इंसानों को आज खत्म कर रहे हैं। सरकार चलाने वाले यदि शराब पीते हैं तो ठीक है। नहीं पीते हैं तो ठीक है और अगर यह पिएंगे भी तो बड़े ही ऊंचे स्तर की शराब पीते हैं। जिनमें उनकी मौत होने की संभावनाएं बहुत कम होती हैं। जब यह मरने-मारने वाली शराब नहीं पी सकते हैं तो उसे बंद क्यों नहीं कर देते हैं।

कभी-कभी संज्ञान में आता है कि शराब पीकर मरने वाले सरकारी शराब से नहीं मरे हैं और इन्होंने नदियों के किनारे या नालों के किनारे या फिर बस्ती से दूर, जल्दी पैसा बनाने वाले  छोटे-मोटे कारोबारियों के द्वारा तैयार की गई नकली शराब से मरे हैं। ठीक है, लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इन नकली शराब बनाने वालों ने पहले तो कच्चा माल लाया होगा और जब कच्चा माल आया होगा तो इसे बनाने के संसाधन जुटाए होंगे। जब संसाधन जुट गए होंगे तो फिर उनको जगह की जरूरत पड़ी होगी। जब जगह मिल गई तब इन्होंने बनाना प्रारंभ किया होगा। और जब बन गई तो जब चोरी से कार्य किया जा रहा है तो जहां बनाई गई वहां तो बेचा नहीं जाएगा। इसके लिए भी आदमियों की या अन्य संसाधन की जरूरत पड़ी होगी, जहां से इसको भेजा गया होगा।

नकली हो या कच्ची शराब बन गई और बिक गई। समाज के लोग देख नहीं पाए या समझ नहीं पाए या जान नहीं पाए, ऐसा तो नहीं हो सकता। लोगों ने देखा भी, लोगों ने समझा भी और लोगों ने जाना भी, लेकिन किसी ने यह हिम्मत नहीं की या जहमत नहीं ली कि वह किसी को बता दे कि यहां पर ऐसा गंदा काम हो रहा है। यानी उस गांव या आसपास के रहने वाले शिक्षित, कुछ धनवान या बहुत धनवान व्यत्ति इन सब चीजों के गौर नहीं करना चाहता। जो शराब पीता है, ठीक है वह समाज या सरकारी व्यवस्था को सूचित नहीं करेगा। लेकिन जो नहीं पीता है या उससे अच्छी पीता है तो वह शासन के सामने इस गंदे कार्य को क्यों नहीं बता पाता है।

तो क्या आसपास कच्ची या मिलावटी शराब या नकली शराब जो भी बनाई गई है, इसके बनाने वाले सरकारी मशीनरी के साथ जरुर रहते होंगे। अच्छा इंसान भी सरकारी संस्थानों की कार्रवाई और उसमें अपनी संलिप्तता से दूर रहना चाहता है वह किसी प्रकार की अपने जीवन में बाध्यता स्वीकार नहीं कर पाता और समाज के प्रति न्याय नहीं कर पाता है। सरकारी मशीनरी भी अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए, विभिन्न प्रकार के गलत कार्यों का समर्थन कर, पैसा पैदा करने का काम करते हैं। इस कार्य में यदि कोई व्यक्ति बाधा  जान पड़ता है तो लोग उसकी जान से भी खेलने मैं घबराते नहीं हैं। गलत कार्य करने वाला भी अपने को क्षेत्र का दबंग समझता है और स्थानीय शासन प्रशासन के मिल जाने पर, उसकी दबंगता की क्षमता पर भारी प्रभाव पड़ता है। उसके बढ़ते प्रभाव से और देश की कानून व्यवस्था की बाध्यता के कारण लोक सामाजिक दायित्वों के प्रति उदासीन हो गए हैं। अब दबंग व्यक्ति, जब उसका कोई विरोध करने वाला ही नहीं रह जाता है तो फिर वह निरंकुश हो जाता है। उसका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ने लगता है और शासन की पार्टियों में भी भागीदारी करके या चंदा देकर के या स्थानीय स्तर पर विभिन्न नेताओं व मंत्रियों की मीटिंग करा कर के अपने प्रभाव को निरंतर बढ़ाता रहता है। इसी प्रभाव के कारण एक दिन वह माफिया बन जाता है। दिन-रात सही और गलत कार्य करने वाले यह अपराधी लोग लगातार कुछ लोगों का उत्पीड़न करके, बस्तियों में या समाज के बीच अपनी धमक भी पैदा कर लेते हैं। अब गांव कस्बे या समाज में रहने वाले लोग, इन माफियाओं या अपराधियों के कामों की अनदेखी करने लगते हैं और देख दाख कर भी बच कर निकल जाते हैं। यही कारण है कि आस-पास या समाज में हो रहे गलत कामों का, सही ढंग से विरोध नहीं हो पा रहा है। विरोध ना होने पर गलत कामों की बहुलता और प्रबलता बढ़ जाती है। समाज में फिर नए अपराधी तैयार होने लगते हैं और इन अपराधियों के बीच में भी संघर्ष शुरू हो जाता है। सब कुछ जानते हुए भी शासन-प्रशासन चुपचाप बैठा रहता है।

साधारण इंसान अब यह जान और समझ चुका है कि किसी एक समस्या के लिए, अगर हम कहीं जाते हैं तो कोई सुनने वाला नहीं है। ऐसी परिस्थिति में जब आज लोगों को महंगाई के कारण अपना घर चलाने में दिक्कत हो रही है तो भला वह इन समाज के भलाई कार्यों में क्यों रूचि लेने लगा ? तमाम तरीके की ऐसी व्यवस्थाएं हैं जिसके कारण लोग सामाजिक कार्यों के पचड़ों में पड़ने से बचने लगा है। इसीलिए समाज विरोधी कार्यों की समाज में बाढ़ आ गई है।


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